السبت، 9 سبتمبر 2017

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ज़ुलहिज्जा के प्रथम दस दिनों के मसनून आमाल 

🌱ज़ुलहिज्जा के प्रथम दस दिनों के मसनून आमाल🌱
इस से पहले ज़ुलहिज्जा के प्रथम दस दिनों की अहमियत और फज़ीलत का बयान हो चूका है |
जिसमें हम ने यह जाना था कि यह दिन साल भर के तमाम दिनों में सबसे बेहतर और सबसे महान हैं |
और यह कि इन दिनों में किया जाने वाला अमल अल्लाह के नज़दीक सबसे ज़्यादा पसंदीदा, सबसे ज़्यादा पाकीज़ा और सबसे ज़्यादा अज्र व सवाब वाला है |
और यह भी कि इन दोनों समस्त प्रकार की इस्लामी इबादतें और नेकियां जमा हो जाती हैं जो कि इन दिनों की अद्वितीय विशेषताओं में से है |
अब आइए हम यह जानते हैं कि इन मुबारक दिनों के मसनून आमाल क्या है ? और वह कौन सी नेकियां है जिन्हें इन दिनों अंजाम देने के शरीअत में बाक़ायदा विशेष निर्देश दिए गए हैं |
तो इन दस दिनों में जो आमाल मसनून हैं और जिनके बारे में शरीअत में विशेष निर्देश आए और जिनका हम मुसलमानों को ख़ुसूसी एहतिमाम करना चाहिए, वह यह हैं |
 ज़िक्रे इलाही:
ज़िक्रे इलाही अल्लाह का साथ, नज़दीकी और मुहब्बत हासिल करने का बेहतरीन ज़रिया है और इन दस दिनों में इसकी ख़ुसूसी ताकीद आई है, जैसाकि अल्लाह तआला का फ़रमान है:
"ويذكروا اسم الله في أيام معلومات"(سورة الحج:28)
“और इन निर्धारित दिनों में अल्लाह के नाम का ज़िक्र करो”|
अनेक मुफ़स्सेरीन के विचार में इन निर्धारित दिनों से मुराद ज़ुलहिज्जा के प्रथम दस दिन हैं |
मालूम हुआ कि इन दस दिनों में ज़िक्रे इलाही का ख़ुसूसी एहतिमाम करना चाहिए |
 विशेष रूप से “ला इला ह इल्लल्लाह” “अल्लाहु अकबर” और “अलहमदु लिल्लाह” जैसे अज़कार ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ना चाहिए, जैसाकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इरशाद है:
"...فأكثروا فيهن من التهليل والتكبير والتحميد"(مسند أحمد:6154)
“...तो तुम इन दिनों में तहलील यानी “ला इला ह इल्लल्लाह” तकबीर यानी “अल्लाहु अकबर” और तहमीद यानी “अलहमदु लिल्लाह” ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ा करो"।
और हज़रत इब्ने उमर और हज़रत अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हुमा के बारे में आता है कि वे इन दिनों में बाज़ार जाते और बुलंद आवाज़ से तकबीरें पढ़ते, और उन्हें देख कर दूसरे लोग भी तकबीरें पढ़ना शुरू कर देते”|
नोट: तकबीरात के मशहूर अलफ़ाज़ यह हैं:
-अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर कबीरा |
-अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर, ला इला ह इल्लल्लाह, वल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर, व लिल्लाहिलहम्द |
-अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर, ला इला ह इल्लल्लाह, वल्लाहु अकबर अल्लाहु अकबर, व लिल्लाहिलहम्द |
नोट: तकबीरें हर आदमी को व्यक्तिगत रूप से पढ़नी चाहिए, सामूहिक रूप से तकबीरें पढ़ना दुरुस्त नहीं है |
 रोज़ा रखना:
रोज़ा एक बेमिसाल अमल है और उसका सवाब बेहिसाब है, यह गुनाहों की माफ़ी और जहन्नम से आज़ादी का बहुत अहम ज़रिया है|
ज़ुलहिज्जा की १ तारीख़ से ९ तारीख़ तक पूरे नौ दिनों के रोज़े रखना मसनून है, चुनांचे हदीस में है कि:
"كان رسول الله صلى الله عليه وسلم يصوم تسع ذي الحجة..."(سنن أبو داود:2437)
यानी “रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ज़ुलहिज्जा के शुरू के नौ दिन रोज़ा रखते थे”|
और अरफ़ा के दिन यानी ज़ुलहिज्जा को रोज़ा रखने की ख़ुसूसी फज़ीलत आई है, चुनांचे नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इरशाद है कि:
"صوم يوم عرفة أحتسب على الله أن يكفر السنة التي قبله والتي بعده."
यानी “अरफ़ा के दिन रोज़ा के बारे में मुझे अल्लाह से उम्मीद है कि वह पिछले (एक) साल और अगले (एक) साल के गुनाहों को मिटा देगा”|
नोट: अरफ़ा का रोज़ा हाजी के लिए मसनून नहीं नहीं है, क्योंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हज्जतुल वदा में अरफ़ा में ठहरे थे तो रोज़े की हालत में नहीं थे |
 हज करना:
हज इस्लाम का एक अहम रुक्न है और उसकी ताक़त रखने वाले हर मुसलमान पर ज़िन्दगी में एक बार फ़र्ज़ है | यह ईमान और जिहाद के बाद सबसे अफ़ज़ल अमल है, इससे पिछले गुनाह माफ़ हो जाते हैं, यह ग़रीबी दूर करता और इसका बदला जन्नत है।
हज इन दिनों का ख़ास अमल है जो साल के बाक़ी दिनों में नहीं किया जा सकता, चुनांचे सुन्नत के मुताबिक़ ज़ुलहिज्जा की ८ तारीख़ से बाक़ाएदा हज की कार्यवाही शुरू हो जाती है, उस दिन हाजी मिना तशरीफ़ ले जाते हैं और वहां दिन का बाक़ी हिस्सा और ९ तारीख़ की रात गुज़ारते हैं और ज़ुहर, अस्र, मग़रिब, इशा और फ़ज्र की नमाज़ अदा करते हैं | फिर ९ तारीख़ को सुबह में अरफ़ा के लिए रवाना हो जाते हैं और वहां दिन भर ठहरते हैं | फिर १० तारीख़ की रात मुज़दलिफ़ा में गुज़रते हैं | फिर सुबह मिना आकर जमरतुल अक़बा को कंकरियां मारते हैं, क़ुर्बानी करते या करवाते हैं, सिर के बाल मुंडवाते या कटवाते हैं और फिर एहराम से हलाल होकर मक्का जाते हैं और तवाफ़े इफ़ाज़ा और सई करते हैं |
 ईद की नमाज़ पढ़ना:
ईदुल अज़हा की नमाज़ जो कि वाजिब या सुन्नते मुअक्कदा और इस्लाम का एक अज़ीम शिआर है ज़ुलहिज्जा की १० तारीख़ को अदा की जाती है |
 क़ुर्बानी करना:
ज़ुलहिज्जा की दस तारीख़ को क़ुर्बानी की रस्म अदा की जाती है और यह क़ुर्बानी का पहला दिन है | क़ुर्बानी हर साल इसकी ताक़त रखने वाले हर मुस्लिम परिवार के लिए मसनून है | क़ुर्बानी अल्लाह की नज़दीकी हासिल करने का ज़रिया, सुन्नते इब्राहिमी की यादगार और नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सून्नते मुबारका है |
नोट: ज़ुलहिज्जा की १० तारीख़ के बारे में नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इरशाद है:
"إن أول ما نبدأ به في يومنا هذا نصلي، ثم نرجع فننحر، من فعله فقد أصاب سنتنا..."(صحيح البخاري:5545)
“आज के दिन हम सबसे पहले (ईद की) नमाज़ पढ़ेंगे, फिर (ईदगाह से) वापस लौट कर कुर्बानी करेंगे, जिस आदमी ने ऐसा किया उसने हमारी सुन्नत को पा लिया”|
इन दिनों किए जाने आमाल में गुनाहों से बचना भी एक लाज़िमी अमल है, क्योंकि यह हुरमत वाले दिन हैं और इनमें गुनाहों से बचने की ख़ुसूसी ताकीद आई है। कुछ अहले इल्म इन दिनों नेकियों की अज़मत के साथ गुनाहों की गंभीरता भी बढ़ जाती है |
🌱इन दस दिनों में इन ख़ुसूसी आमाक के अतिरिक्त अन्य तमाम नेक आमाल का भी अच्छा ख़ासा एहतिमाम करना चाहिए, क्योंकि यह ज़्यादा से ज़्यादा नेकियां कमाने के दिन हैं और इन दिनों में की जाने वाली नेकियां अल्लाह के नज़दीक सबसे ज़्यादा पसंदीदा, सबसे ज़्यादा पाकीज़ा और सबसे ज़्यादा अज्र व सवाब वाली हैं |
चुनांचे इन दिनों समय की पाबंदी और इख़लास व ख़ुशूअ के साथ सुन्नते नबवी के मुताबिक़ पांचों नमाज़ों का एहतिमाम करना चाहिए, इसलिए कि नमाज़ दीन का सुतून और इस्लाम का दूसरा सबसे बड़ा रुक्न है, यह ईमान और कुफ़्र के दरमियान हद्दे फ़ासिल है, यह मोमिन की मेराज है, क़यामत के दिन सबसे पहले इसी का हिसाब लिया जाएगा और उसकी दुरुस्तुगी और क़बूलियत पर ही कामयाबी और अन्य आमाल की क़बूलियत का दारो मदार होगा |
इन दिनों फ़र्ज़ के अतिरिक्त नफ़ली नमाज़ों का भी एहतिमाम करना चाहिए जैसे सुन्नते मुअक्कदा व ग़ैर मुअक्कदा नमाज़ें, इशराक़ की नमाज़ें, तहज्जुद की नमाज़, वित्र की नमाज़ वग़ैरह ताकि अल्लाह की अधिक नज़दीकी और मुहब्बत हासिल हो |
इसी तरह सदक़ात व खैरात, अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करना, एहसान, सिला रहमी, उमरह, तवाफ़, तिलावत, दुआ, तौबा, इस्तिगफ़ार, तलबे इल्मे दीन , दावत व तबलीग़ और ख़िदमते ख़लक़ वग़ैरह का भी इन दोनों में ख़ुसूसी एहतिमाम करना चाहिए |
नोट: सलफ़ सालेहीन इन दस दिनों की बड़ी क़द्र किया करते थे | हज़रत सईद बिन जुबैर रहिमहुल्लाह के बारे में आता है कि वह इन दिनों नेक आमाल में ख़ूब मेहनत करते थे |
इसलिए हमें भी चाहिए कि इन मुबारक दिनों को ग़नीमत जानें, इस सुनहरे अवसर से लाभ उठाएं और इन मुहतरम दिनों में नेकियों के करने और गुनाहों से बचने का ख़ुसूसी एहतिराम करें |
अल्लाह हम सबको तौफ़ीक़ अता फ़रमाए |
................ जारी ..............
आप का भाई:
इफ्तिख़ार आलम मदनी
इस्लामिक गाइडेंस सेंटर
जुबैल सऊदी अरब
+966508750925

🌱क़ुर्बानी के अहकाम व मसाएल🌱

🌱क़ुर्बानी के अहकाम व मसाएल🌱
क़ुर्बानी सुन्नते मुअक्कदा है, जैसाकि इमाम तिर्मिज़ी रहिमहुल्लाह फ़रमाते हैं:
"والعمل على هذا عند أهل العلم أن الأضحية ليست واجبة، ولكنها سنة من سنن رسول الله صلى الله عليه وسلم يستحب أن يعمل بها."(سنن ترمذی:1506)
“और उलमा के नज़दीक इसी पर अमल है कि क़ुर्बानी वाजिब नहीं है, अलबत्ता यह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नतों में से एक सुन्नत है जिसपर अमल करना मुस्तहब है”|
क़ुर्बानी हुक्मे इलाही है, जैसाकि क़ुरआन मजीद में है:
"فصل لربك وانحر."(سورة الكوثر:2)
“तो आप अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ें और और क़ुर्बानी करें”|
क़ुर्बानी सुन्नते नबवी है, जैसाकि हदीस में है:
"إن أول ما نبدأ به في يومنا هذا نصلي، ثم نرجع فننحر، من فعله فقد أصاب سنتنا..."(صحيح البخاري:5545)
“आज (ईद) के दिन हम सबसे पहले (ईद की) नमाज़ पढ़ेंगे, फिर (ईदगाह से) वापस लौटकर क़ुर्बानी करेंगे, जिसने यह किया उसने हमारी सुन्नत को पा लिया”|
और हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा ब्यान करते हैं कि:
"أقام رسول الله صلى الله عليه وسلم بالمدينة عشر سنين يضحي كل سنة."(رواه الترمذي وقال حديث حسن:1507)
“नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मदीना में दस साल क़ियाम फ़रमाया और (इस दौरान) आप हर साल क़ुर्बानी करते रहे”|
साहबा किराम से भी बदस्तूर क़ुर्बानी करने का अमल साबित है, जैसाकि हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा फ़रमाते हैं कि:
"ضحى رسول الله والمسلمون."(رواہ الترمذي وقال حدیث حسن صحیح:1506)
“रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने और मुसलमानों ने क़ुर्बानी की है”|
इन रिवायतों से यह भी मालूम हुआ कि क़ुर्बानी का हुक्म सिर्फ़ हाजियों के लिए नहीं है जैसाकि हदीस का इंकार करने वालों का कहना है, बल्कि अन्य मुसलमानों के लिए भी है और यही अहले सुन्नत व जमाअत और तमाम उम्मत का शुरू से आज तक मानना रहा है, फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि क़ुर्बानी हाजियों पर वाजिब है (सिवाए मुफ़रिद हाजियों के) जबकि अन्य मुसलमानों के लिए मुस्तहब है |
क़ुर्बानी सुन्नते इब्राहिमी की यादगार है, जैसाकि अल्लाह तआला का फ़रमान है:
"وفديناه بذبح عظيم."(الصافات:107)
“और हमने (इब्राहीम अलिहिस्सलाम) को बदले में एक बड़ा ज़बीहा दिया”|
क़ुर्बानी की रस्म हर उम्मत में अदा की जाती रही है, जैसाकि अल्लाह तआला का फ़रमान है:
"ولكل أمة جعلنا منسكا"(سورة الحج:34)
“और हम ने हर उम्मत में क़ुर्बानी का तरीक़ा मुक़र्रर किया”|
ताक़त रखने वाले हर परिवार को हर साल क़ुर्बानी करनी चाहिए, जैसाकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फ़रमान है:
"أيها الناس! إن على كل أهل بيت في كل عام أضحية."(سنن أبو داود:2788 سنن ترمذی:1518)
“ऐ लोगो ! बेशक हर घर वालों पर हर साल एक क़ुर्बानी है”|
ताक़त रखने के बावजूद क़ुर्बानी न करना पसंदीदा अमल नहीं है , क्योंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इरशाद है:
"من وجد سعة لأن يضحي فلم يضح فلا يحضر مصلانا."(صحيح الترغيب والترهيب:1087)
“जो आदमी ताक़त के बावजूद क़ुर्बानी न करे वह हमारी ईदगाह में हाज़िर न हो”|
क़ुर्बानी एक इबादत, कुर्बते इलाही का ज़रिया, और दीनी व मिल्ली शिआर है, यह एक ऐसा अमल है जो शरीअत में मतलूब है, इसलिए जानवर क़ुर्बान करने के बजाए उसको या उसकी क़ीमत को सदक़ा कर देना दुरुस्त नहीं है और इससे न क़ुर्बानी की रस्म अदा होगी और न क़ुर्बानी का सवाब मिलेगा |
जैसाकि ऊपर हदीस गुज़री क़ुर्बानी ताक़त रखने वाले हर घर पर है, हर सदस्य पर नहीं है, इसलिए क़ुर्बानी घर के किसी एक या अनेक सदस्य के बजाए घर के गार्जियन और पूरे घर वालों की तरफ़ से होनी चाहिए |
नबी करीम सल्लल्लाहु का अमल भी इसी पर दलालत करता है कि परिवार का सदस्य अपनी और अपने घर वालों की तरफ़ से क़ुर्बानी करे, चुनांचे हदीस में है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम क़ुर्बानी का जानवर ज़बह करते हुए यह फ़रमाते थे कि:
"بسم الله، اللهم تقبل من محمد وآل محمد..."(صحيح مسلم:1967)
“शुरू करता हूं अल्लाह के नाम से, ऐ अल्लाह ! क़बूल फ़रमा मुहम्मद से और आले मुहम्मद से...”l
तमाम घर वलों की तरफ़ से एक क़ुर्बानी काफ़ी है, घर के हर हर सदस्य की तरफ़ से अलग अलग क़ुर्बानी ज़रुरी नहीं है, नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व् सल्लम का मामूल इसी पर दलालत करता है, चुनांचे हदीस में है कि:
"كان النبي صلى الله عليه وسلم يضحي بالشاة الواحدة عن جميع أهله."(رواه الطبراني الطبراني في الكبير ورجاله رجال الصحيح، مجمع الزوائد:4/21)
“नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक बकरी अपने तमाम घर वालों की तरफ़ से कुर्बान करते थे”|
स्पष्ट रहे कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को नौ बीवियां थीं, तीन बेटे थे, और चार बेटियां थीं और आप हर साल क़ुर्बानी करते थे इसके बावजूद यह साबित नहीं है कि आपने कभी उनकी तरफ़ से या उनमें से किसी एक की तरफ़ से अलग से कोई क़ुर्बानी की हो |
यहां तक कि सहाबा किराम का भी यही मामूल था, जैसाकि हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि:
"كان الرجل في عهد النبي صلى الله عليه وسلم يضحي بالشاة عنه وعن أهل بيته۔۔۔حتى تباهى الناس فصارت كما ترى."(سنن الترمذي:1505)
“नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में एक आदमी अपने और अपने घर वालों की तरफ़ से एक ही बकरी क़ुर्बान करता था...यहां तक कि लोग एक दूसरे पर फ़ख्र जताने लगे तो अब जो सूरते हाल है वह तुम देख रहे हो”|
मालूम हुआ कि घर के हर एक सदस्य की तरफ़ से अलग अलग क़ुर्बानी को या एक घर में अनेक क़ुर्बानियों को लाज़िमी मामूल बना लेना न सिर्फ़ यह कि एक ग़ैर ज़रुरी अमल और रसूल व सहाबा के ज़माने के मामूल के ख़िलाफ़ है बल्कि यह दिखावे और फ़ख्र जताने का ज़रिया भी बन सकता है |
जैसाकि मालूम हुआ कि क़ुर्बानी सुन्नत है, वाजिब नहीं, और वह उसकी ताक़त रखने वाले पर है, इसलिए जिसके पास इसकी ताक़त न हो और आने वाले क़रीबी दिनों में इसकी उम्मीद भी न हो तो उसको क़ुर्बानी के लिए क़र्ज़ लेने का कष्ट नहीं उठाना चाहिए |
क़ुर्बानी ज़िन्दा लोगों पर है, वफ़ात पा चुके लोगों पर नहीं है, इसलिए वफ़ात पा चुके लोगों की तरफ़ से ख़ुसूसी या मुस्तक़िल क़ुर्बानी करना मसनून नहीं है |
क्योंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से साबित नहीं है कि आप ने अपनी किसी वफ़ात पा चुकी बीवी या बेटे या बेटी या चचा की तरफ़ से कभी कोई ख़ुसूसी या मुस्तक़िल क़ुर्बानी की हो |
वफ़ात पा चुके लोगों की तरफ़ से क़ुर्बानी के जवाज़ में जो रिवायतें पेश की जाती हैं वह मुहद्देसीन के नज़दीक या तो ज़ईफ़ हैं या उनके सही और ज़ईफ़ होने में मतभेद है, या फिर वह इस सूरत पर महमूल हैं कि अगर वफ़ात पा चुके लोगों ने वसीयत की हो तो उनकी तरफ़ से क़ुर्बानी की जाएगी या इस सूरत पर कि ज़िन्दा लोगों की तरफ़ से की जाने वाली क़ुबानी में उनको भी ज़िमनी तौर पर शामिल कर लिया जाए, और यह भी संभव है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अपनी उम्मत की तरफ़ से क़ुर्बानी करना आपकी ख़ुसूसियात में शामिल हो |
नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की तरफ़ से भी क़ुर्बानी करना मसनून नहीं है, क्योंकि न अल्लाह तआला ने अपने बन्दों को इसका हुक्म दिया है और न ख़ुद नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपनी उम्मत को इसकी तालीम दी है |
नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की तरफ़ से क़ुर्बानी करने की कोई ज़रूरत भी नहीं है, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम नेकी के मामले बेनियाज़ हैं और किसी उम्मती के ईसाले सवाब के मोहताज नहीं हैं, और वैसे भी एक मुसलमान जो भी नेकी करता है नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को उसका बराबर सवाब मिलता है |
एक ही जानवर को क़ुर्बानी और अक़ीक़े की साझा नीयत से ज़बह करना दुरुस्त नहीं है, क्योंकि शरीअत में इसका कोई सुबूत नहीं मिलता, और यूं भी क़ुर्बानी और अक़ीक़ा दोनों अलग और मुस्तक़िल इबादत है, इसलिए एक को दूसरे में दाख़िल करना मुनासिब नहीं है, चुनांचे क़ुर्बानी पूरे परिवार की तरफ़ से होती है जबकि अक़ीक़ा किसी सदस्य की तरफ़ से होता है, क़ुर्बानी हर साल ईद के दिन और तशरीक़ के दिनों में मसनून है जबकि अक़ीक़ा ज़िन्दगी में सिर्फ़ एक बार बच्चे के जन्म के सातवें दिन मसनून है, क़ुर्बानी में बड़ा जानवर भी मसनून है और उसमें साझेदारी भी होती है जबकि अक़ीक़ा में छोटा जानवर मसनून है और उसमें साझेदारी भी नहीं होती है क्योंकि अक़ीक़ा नवजात बच्चे की तरफ़ से फ़िदया होता है इसलिए जिस तरह बच्चा एक सम्पूर्ण जान है उसी तरह उसके फ़िदये (यानी अक़ीक़े) में ज़बह किया जाने वाला जानवर भी मुकम्मल जान होना चाहिए |
............... जारी ...............
आप का भाई:
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+966508750925

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📚 PORQUE OS MUÇULMANOS DIZEM "ALLAHU AKBAR"


📚 PORQUE OS MUÇULMANOS DIZEM "ALLAHU AKBAR"
"Allahu akbar!" significa "Deus é grande!"
O tempo todo. A frase - que é chamada takbir - gira de novo e de novo em contextos religiosos. Por exemplo, o chamado à oração começa com quatro repetições de "Allahu akbar".
Uma vez que você chega na mesquita, "Allahu akbar" também aparece nas orações. Os muçulmanos também dizem isso depois de matar um animal. Alguns o sussurram (junto com o chamado à oração) na orelha de um bebê recém nascido.
Os muçulmanos podem usar Allahu akbar para expressar aprovação geral, ou mesmo como uma exclamação de surpresa. Às vezes, as multidões gritam a frase como uma forma de aplauso, a maneira como as pessoas podem gritar "Bravo!" no final de uma performance.
O takbir muitas vezes se lança em louvor após uma leitura do Alcorão. Allahu akbar não é apropriado para todas as ocasiões. Uma pessoa piedosa não diria isso no banheiro, nem o usaria em um lugar impuro como um lixo.
Embora os jornais muitas vezes traduzam a frase como "Deus é excelente", a tradução adequada é, na verdade, "Deus é o maior". A frase implica que, não importa o que você esteja fazendo, você deve sempre lembrar que Deus ainda é maior. Em situações diferentes. Você pode dizer para consolar alguém, por exemplo, com a ideia de que Deus é grande em sua misericórdia ou benevolência.
Venha conhecer o Islam
❣️Aguardamos sua mensagem ficaremos felizes em falar com você❣️

MERCY TO MANKIND

‏‎Al Husna Foundation, Inc.‎‏ موجود مع ‏‎Dawah Corner Bookstore‎‏ و‏‎Muassasatu Addhiya‎‏.
Bismillahi Rahmanir Raheem.
Assalamu Alikum wa Rahmatullahi wa Barakatuhu.
AL HUSNA FOUNDATION, INC. 
together with
THE ULAMA COUNCIL OF ZAMBOANGA PENINSULA,
ADDHIYA FOUNDATION, INC, &
ASSUNNAH FOUNDATION
present
ILM VOYAGE CONVENTION 2017
entitled
MERCY TO MANKIND
with speakers
SH. WAHAJ TARIN
BROTHER WAEL IBRAHIM
SH. HUSSAIN YEE
DR. MUHAMMAD SALAH
MUFTI ISMAIL MENK
on October 21, 2017, Saturday, 9:00 AM to 6:00 PM
at Astoria Regency Convention Center, Pasonanca
Free Seating Tickets at PhP600.00 each can be bought starting tomorrow, Friday, September 08, 2017 at the following authorized ticket outlets:
ZAMBOANGA CITY:
DAR AL-HUSNa: 0917 155 5091
DAKWAH BOOK CORNER: 0926 778 0314
MARKAZ ADDHIYA: 0906 850 2521
MARKAZ ASSUNNAH: 0997 554 7980
MAHAD MORO: 0927 317 2968
BATIKS BOUTIQUE: 0955 851 5684
IDEAL MAXI DRESS|ALVAREZ ST.: 0936 339 5434
ISABELA | BASILAN: 0997 437 8223
JOLO, SULU | MSU: 0905 636 7260
BONGAO | TAWI-TAWI | AL-ASAR INSTITUTE: 0912 671 9703 / 0975 988 2297
Reserved Premium Tickets at PhP6,000.00 each are also available
Our partners for this event are:
Dakwah Corner Bookstore
Mahad Moro Al Islamiy
Unified Medical Muslim Association
IMAN Phil
Muslim Association on Humanitarian, Institute and Research
Ma'had Attaqwa Institute
Al-Asr Institute

O Allah!

‏‎The Daily Reminder‎‏ موجود مع ‏‎Herta Eri Pramita‎‏ و‏‏41‏ آخرين‏.
O Allah!
If I hurt others, give me the strength to apologize...
If people hurt me, give me the strength to forgive...
Ameen!
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