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نها سنة من سنن رسول الله صلى الله عليه وسلم يستحب أن يعمل بها."(سنن ترمذی:1506)
“और उलमा के नज़दीक इसी पर अमल है कि क़ुर्बानी वाजिब नहीं है, अलबत्ता यह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नतों में से एक सुन्नत है जिसपर अमल करना मुस्तहब है”|
✍क़ुर्बानी हुक्मे इलाही है, जैसाकि क़ुरआन मजीद में है:
"فصل لربك وانحر."(سورة الكوثر:2)
“तो आप अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ें और और क़ुर्बानी करें”|
✍क़ुर्बानी सुन्नते नबवी है, जैसाकि हदीस में है:
"إن أول ما نبدأ به في يومنا هذا نصلي، ثم نرجع فننحر، من فعله فقد أصاب سنتنا..."(صحيح البخاري:5545)
“आज (ईद) के दिन हम सबसे पहले (ईद की) नमाज़ पढ़ेंगे, फिर (ईदगाह से) वापस लौटकर क़ुर्बानी करेंगे, जिसने यह किया उसने हमारी सुन्नत को पा लिया”|
और हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा ब्यान करते हैं कि:
"أقام رسول الله صلى الله عليه وسلم بالمدينة عشر سنين يضحي كل سنة."(رواه الترمذي وقال حديث حسن:1507)
“नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मदीना में दस साल क़ियाम फ़रमाया और (इस दौरान) आप हर साल क़ुर्बानी करते रहे”|
✍साहबा किराम से भी बदस्तूर क़ुर्बानी करने का अमल साबित है, जैसाकि हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा फ़रमाते हैं कि:
"ضحى رسول الله والمسلمون."(رواہ الترمذي وقال حدیث حسن صحیح:1506)
“रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने और मुसलमानों ने क़ुर्बानी की है”|
✍इन रिवायतों से यह भी मालूम हुआ कि क़ुर्बानी का हुक्म सिर्फ़ हाजियों के लिए नहीं है जैसाकि हदीस का इंकार करने वालों का कहना है, बल्कि अन्य मुसलमानों के लिए भी है और यही अहले सुन्नत व जमाअत और तमाम उम्मत का शुरू से आज तक मानना रहा है, फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि क़ुर्बानी हाजियों पर वाजिब है (सिवाए मुफ़रिद हाजियों के) जबकि अन्य मुसलमानों के लिए मुस्तहब है |
✍क़ुर्बानी सुन्नते इब्राहिमी की यादगार है, जैसाकि अल्लाह तआला का फ़रमान है:
"وفديناه بذبح عظيم."(الصافات:107)
“और हमने (इब्राहीम अलिहिस्सलाम) को बदले में एक बड़ा ज़बीहा दिया”|
✍क़ुर्बानी की रस्म हर उम्मत में अदा की जाती रही है, जैसाकि अल्लाह तआला का फ़रमान है:
"ولكل أمة جعلنا منسكا"(سورة الحج:34)
“और हम ने हर उम्मत में क़ुर्बानी का तरीक़ा मुक़र्रर किया”|
✍ताक़त रखने वाले हर परिवार को हर साल क़ुर्बानी करनी चाहिए, जैसाकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फ़रमान है:
"أيها الناس! إن على كل أهل بيت في كل عام أضحية."(سنن أبو داود:2788 سنن ترمذی:1518)
“ऐ लोगो ! बेशक हर घर वालों पर हर साल एक क़ुर्बानी है”|
✍ताक़त रखने के बावजूद क़ुर्बानी न करना पसंदीदा अमल नहीं है , क्योंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इरशाद है:
"من وجد سعة لأن يضحي فلم يضح فلا يحضر مصلانا."(صحيح الترغيب والترهيب:1087)
“जो आदमी ताक़त के बावजूद क़ुर्बानी न करे वह हमारी ईदगाह में हाज़िर न हो”|
✍क़ुर्बानी एक इबादत, कुर्बते इलाही का ज़रिया, और दीनी व मिल्ली शिआर है, यह एक ऐसा अमल है जो शरीअत में मतलूब है, इसलिए जानवर क़ुर्बान करने के बजाए उसको या उसकी क़ीमत को सदक़ा कर देना दुरुस्त नहीं है और इससे न क़ुर्बानी की रस्म अदा होगी और न क़ुर्बानी का सवाब मिलेगा |
✍जैसाकि ऊपर हदीस गुज़री क़ुर्बानी ताक़त रखने वाले हर घर पर है, हर सदस्य पर नहीं है, इसलिए क़ुर्बानी घर के किसी एक या अनेक सदस्य के बजाए घर के गार्जियन और पूरे घर वालों की तरफ़ से होनी चाहिए |
नबी करीम सल्लल्लाहु का अमल भी इसी पर दलालत करता है कि परिवार का सदस्य अपनी और अपने घर वालों की तरफ़ से क़ुर्बानी करे, चुनांचे हदीस में है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम क़ुर्बानी का जानवर ज़बह करते हुए यह फ़रमाते थे कि:
"بسم الله، اللهم تقبل من محمد وآل محمد..."(صحيح مسلم:1967)
“शुरू करता हूं अल्लाह के नाम से, ऐ अल्लाह ! क़बूल फ़रमा मुहम्मद से और आले मुहम्मद से...”l
✍तमाम घर वलों की तरफ़ से एक क़ुर्बानी काफ़ी है, घर के हर हर सदस्य की तरफ़ से अलग अलग क़ुर्बानी ज़रुरी नहीं है, नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व् सल्लम का मामूल इसी पर दलालत करता है, चुनांचे हदीस में है कि:
"كان النبي صلى الله عليه وسلم يضحي بالشاة الواحدة عن جميع أهله."(رواه الطبراني الطبراني في الكبير ورجاله رجال الصحيح، مجمع الزوائد:4/21)
“नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक बकरी अपने तमाम घर वालों की तरफ़ से कुर्बान करते थे”|
स्पष्ट रहे कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को नौ बीवियां थीं, तीन बेटे थे, और चार बेटियां थीं और आप हर साल क़ुर्बानी करते थे इसके बावजूद यह साबित नहीं है कि आपने कभी उनकी तरफ़ से या उनमें से किसी एक की तरफ़ से अलग से कोई क़ुर्बानी की हो |
यहां तक कि सहाबा किराम का भी यही मामूल था, जैसाकि हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि:
"كان الرجل في عهد النبي صلى الله عليه وسلم يضحي بالشاة عنه وعن أهل بيته۔۔۔حتى تباهى الناس فصارت كما ترى."(سنن الترمذي:1505)
“नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में एक आदमी अपने और अपने घर वालों की तरफ़ से एक ही बकरी क़ुर्बान करता था...यहां तक कि लोग एक दूसरे पर फ़ख्र जताने लगे तो अब जो सूरते हाल है वह तुम देख रहे हो”|
मालूम हुआ कि घर के हर एक सदस्य की तरफ़ से अलग अलग क़ुर्बानी को या एक घर में अनेक क़ुर्बानियों को लाज़िमी मामूल बना लेना न सिर्फ़ यह कि एक ग़ैर ज़रुरी अमल और रसूल व सहाबा के ज़माने के मामूल के ख़िलाफ़ है बल्कि यह दिखावे और फ़ख्र जताने का ज़रिया भी बन सकता है |
✍जैसाकि मालूम हुआ कि क़ुर्बानी सुन्नत है, वाजिब नहीं, और वह उसकी ताक़त रखने वाले पर है, इसलिए जिसके पास इसकी ताक़त न हो और आने वाले क़रीबी दिनों में इसकी उम्मीद भी न हो तो उसको क़ुर्बानी के लिए क़र्ज़ लेने का कष्ट नहीं उठाना चाहिए |
✍क़ुर्बानी ज़िन्दा लोगों पर है, वफ़ात पा चुके लोगों पर नहीं है, इसलिए वफ़ात पा चुके लोगों की तरफ़ से ख़ुसूसी या मुस्तक़िल क़ुर्बानी करना मसनून नहीं है |
क्योंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से साबित नहीं है कि आप ने अपनी किसी वफ़ात पा चुकी बीवी या बेटे या बेटी या चचा की तरफ़ से कभी कोई ख़ुसूसी या मुस्तक़िल क़ुर्बानी की हो |
वफ़ात पा चुके लोगों की तरफ़ से क़ुर्बानी के जवाज़ में जो रिवायतें पेश की जाती हैं वह मुहद्देसीन के नज़दीक या तो ज़ईफ़ हैं या उनके सही और ज़ईफ़ होने में मतभेद है, या फिर वह इस सूरत पर महमूल हैं कि अगर वफ़ात पा चुके लोगों ने वसीयत की हो तो उनकी तरफ़ से क़ुर्बानी की जाएगी या इस सूरत पर कि ज़िन्दा लोगों की तरफ़ से की जाने वाली क़ुबानी में उनको भी ज़िमनी तौर पर शामिल कर लिया जाए, और यह भी संभव है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अपनी उम्मत की तरफ़ से क़ुर्बानी करना आपकी ख़ुसूसियात में शामिल हो |
नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की तरफ़ से भी क़ुर्बानी करना मसनून नहीं है, क्योंकि न अल्लाह तआला ने अपने बन्दों को इसका हुक्म दिया है और न ख़ुद नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपनी उम्मत को इसकी तालीम दी है |
✍नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की तरफ़ से क़ुर्बानी करने की कोई ज़रूरत भी नहीं है, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम नेकी के मामले बेनियाज़ हैं और किसी उम्मती के ईसाले सवाब के मोहताज नहीं हैं, और वैसे भी एक मुसलमान जो भी नेकी करता है नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को उसका बराबर सवाब मिलता है |
✍एक ही जानवर को क़ुर्बानी और अक़ीक़े की साझा नीयत से ज़बह करना दुरुस्त नहीं है, क्योंकि शरीअत में इसका कोई सुबूत नहीं मिलता, और यूं भी क़ुर्बानी और अक़ीक़ा दोनों अलग और मुस्तक़िल इबादत है, इसलिए एक को दूसरे में दाख़िल करना मुनासिब नहीं है, चुनांचे क़ुर्बानी पूरे परिवार की तरफ़ से होती है जबकि अक़ीक़ा किसी सदस्य की तरफ़ से होता है, क़ुर्बानी हर साल ईद के दिन और तशरीक़ के दिनों में मसनून है जबकि अक़ीक़ा ज़िन्दगी में सिर्फ़ एक बार बच्चे के जन्म के सातवें दिन मसनून है, क़ुर्बानी में बड़ा जानवर भी मसनून है और उसमें साझेदारी भी होती है जबकि अक़ीक़ा में छोटा जानवर मसनून है और उसमें साझेदारी भी नहीं होती है क्योंकि अक़ीक़ा नवजात बच्चे की तरफ़ से फ़िदया होता है इसलिए जिस तरह बच्चा एक सम्पूर्ण जान है उसी तरह उसके फ़िदये (यानी अक़ीक़े) में ज़बह किया जाने वाला जानवर भी मुकम्मल जान होना चाहिए |
............... जारी ...............
आप का भाई:
इफ्तिख़ार आलम मदनी
इस्लामिक गाइडेंस सेंटर
जुबैल सऊदी अरब
+966508750925
“और उलमा के नज़दीक इसी पर अमल है कि क़ुर्बानी वाजिब नहीं है, अलबत्ता यह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नतों में से एक सुन्नत है जिसपर अमल करना मुस्तहब है”|
✍क़ुर्बानी हुक्मे इलाही है, जैसाकि क़ुरआन मजीद में है:
"فصل لربك وانحر."(سورة الكوثر:2)
“तो आप अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ें और और क़ुर्बानी करें”|
✍क़ुर्बानी सुन्नते नबवी है, जैसाकि हदीस में है:
"إن أول ما نبدأ به في يومنا هذا نصلي، ثم نرجع فننحر، من فعله فقد أصاب سنتنا..."(صحيح البخاري:5545)
“आज (ईद) के दिन हम सबसे पहले (ईद की) नमाज़ पढ़ेंगे, फिर (ईदगाह से) वापस लौटकर क़ुर्बानी करेंगे, जिसने यह किया उसने हमारी सुन्नत को पा लिया”|
और हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा ब्यान करते हैं कि:
"أقام رسول الله صلى الله عليه وسلم بالمدينة عشر سنين يضحي كل سنة."(رواه الترمذي وقال حديث حسن:1507)
“नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मदीना में दस साल क़ियाम फ़रमाया और (इस दौरान) आप हर साल क़ुर्बानी करते रहे”|
✍साहबा किराम से भी बदस्तूर क़ुर्बानी करने का अमल साबित है, जैसाकि हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा फ़रमाते हैं कि:
"ضحى رسول الله والمسلمون."(رواہ الترمذي وقال حدیث حسن صحیح:1506)
“रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने और मुसलमानों ने क़ुर्बानी की है”|
✍इन रिवायतों से यह भी मालूम हुआ कि क़ुर्बानी का हुक्म सिर्फ़ हाजियों के लिए नहीं है जैसाकि हदीस का इंकार करने वालों का कहना है, बल्कि अन्य मुसलमानों के लिए भी है और यही अहले सुन्नत व जमाअत और तमाम उम्मत का शुरू से आज तक मानना रहा है, फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि क़ुर्बानी हाजियों पर वाजिब है (सिवाए मुफ़रिद हाजियों के) जबकि अन्य मुसलमानों के लिए मुस्तहब है |
✍क़ुर्बानी सुन्नते इब्राहिमी की यादगार है, जैसाकि अल्लाह तआला का फ़रमान है:
"وفديناه بذبح عظيم."(الصافات:107)
“और हमने (इब्राहीम अलिहिस्सलाम) को बदले में एक बड़ा ज़बीहा दिया”|
✍क़ुर्बानी की रस्म हर उम्मत में अदा की जाती रही है, जैसाकि अल्लाह तआला का फ़रमान है:
"ولكل أمة جعلنا منسكا"(سورة الحج:34)
“और हम ने हर उम्मत में क़ुर्बानी का तरीक़ा मुक़र्रर किया”|
✍ताक़त रखने वाले हर परिवार को हर साल क़ुर्बानी करनी चाहिए, जैसाकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फ़रमान है:
"أيها الناس! إن على كل أهل بيت في كل عام أضحية."(سنن أبو داود:2788 سنن ترمذی:1518)
“ऐ लोगो ! बेशक हर घर वालों पर हर साल एक क़ुर्बानी है”|
✍ताक़त रखने के बावजूद क़ुर्बानी न करना पसंदीदा अमल नहीं है , क्योंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इरशाद है:
"من وجد سعة لأن يضحي فلم يضح فلا يحضر مصلانا."(صحيح الترغيب والترهيب:1087)
“जो आदमी ताक़त के बावजूद क़ुर्बानी न करे वह हमारी ईदगाह में हाज़िर न हो”|
✍क़ुर्बानी एक इबादत, कुर्बते इलाही का ज़रिया, और दीनी व मिल्ली शिआर है, यह एक ऐसा अमल है जो शरीअत में मतलूब है, इसलिए जानवर क़ुर्बान करने के बजाए उसको या उसकी क़ीमत को सदक़ा कर देना दुरुस्त नहीं है और इससे न क़ुर्बानी की रस्म अदा होगी और न क़ुर्बानी का सवाब मिलेगा |
✍जैसाकि ऊपर हदीस गुज़री क़ुर्बानी ताक़त रखने वाले हर घर पर है, हर सदस्य पर नहीं है, इसलिए क़ुर्बानी घर के किसी एक या अनेक सदस्य के बजाए घर के गार्जियन और पूरे घर वालों की तरफ़ से होनी चाहिए |
नबी करीम सल्लल्लाहु का अमल भी इसी पर दलालत करता है कि परिवार का सदस्य अपनी और अपने घर वालों की तरफ़ से क़ुर्बानी करे, चुनांचे हदीस में है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम क़ुर्बानी का जानवर ज़बह करते हुए यह फ़रमाते थे कि:
"بسم الله، اللهم تقبل من محمد وآل محمد..."(صحيح مسلم:1967)
“शुरू करता हूं अल्लाह के नाम से, ऐ अल्लाह ! क़बूल फ़रमा मुहम्मद से और आले मुहम्मद से...”l
✍तमाम घर वलों की तरफ़ से एक क़ुर्बानी काफ़ी है, घर के हर हर सदस्य की तरफ़ से अलग अलग क़ुर्बानी ज़रुरी नहीं है, नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व् सल्लम का मामूल इसी पर दलालत करता है, चुनांचे हदीस में है कि:
"كان النبي صلى الله عليه وسلم يضحي بالشاة الواحدة عن جميع أهله."(رواه الطبراني الطبراني في الكبير ورجاله رجال الصحيح، مجمع الزوائد:4/21)
“नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक बकरी अपने तमाम घर वालों की तरफ़ से कुर्बान करते थे”|
स्पष्ट रहे कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को नौ बीवियां थीं, तीन बेटे थे, और चार बेटियां थीं और आप हर साल क़ुर्बानी करते थे इसके बावजूद यह साबित नहीं है कि आपने कभी उनकी तरफ़ से या उनमें से किसी एक की तरफ़ से अलग से कोई क़ुर्बानी की हो |
यहां तक कि सहाबा किराम का भी यही मामूल था, जैसाकि हज़रत अबू अय्यूब अंसारी रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि:
"كان الرجل في عهد النبي صلى الله عليه وسلم يضحي بالشاة عنه وعن أهل بيته۔۔۔حتى تباهى الناس فصارت كما ترى."(سنن الترمذي:1505)
“नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में एक आदमी अपने और अपने घर वालों की तरफ़ से एक ही बकरी क़ुर्बान करता था...यहां तक कि लोग एक दूसरे पर फ़ख्र जताने लगे तो अब जो सूरते हाल है वह तुम देख रहे हो”|
मालूम हुआ कि घर के हर एक सदस्य की तरफ़ से अलग अलग क़ुर्बानी को या एक घर में अनेक क़ुर्बानियों को लाज़िमी मामूल बना लेना न सिर्फ़ यह कि एक ग़ैर ज़रुरी अमल और रसूल व सहाबा के ज़माने के मामूल के ख़िलाफ़ है बल्कि यह दिखावे और फ़ख्र जताने का ज़रिया भी बन सकता है |
✍जैसाकि मालूम हुआ कि क़ुर्बानी सुन्नत है, वाजिब नहीं, और वह उसकी ताक़त रखने वाले पर है, इसलिए जिसके पास इसकी ताक़त न हो और आने वाले क़रीबी दिनों में इसकी उम्मीद भी न हो तो उसको क़ुर्बानी के लिए क़र्ज़ लेने का कष्ट नहीं उठाना चाहिए |
✍क़ुर्बानी ज़िन्दा लोगों पर है, वफ़ात पा चुके लोगों पर नहीं है, इसलिए वफ़ात पा चुके लोगों की तरफ़ से ख़ुसूसी या मुस्तक़िल क़ुर्बानी करना मसनून नहीं है |
क्योंकि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से साबित नहीं है कि आप ने अपनी किसी वफ़ात पा चुकी बीवी या बेटे या बेटी या चचा की तरफ़ से कभी कोई ख़ुसूसी या मुस्तक़िल क़ुर्बानी की हो |
वफ़ात पा चुके लोगों की तरफ़ से क़ुर्बानी के जवाज़ में जो रिवायतें पेश की जाती हैं वह मुहद्देसीन के नज़दीक या तो ज़ईफ़ हैं या उनके सही और ज़ईफ़ होने में मतभेद है, या फिर वह इस सूरत पर महमूल हैं कि अगर वफ़ात पा चुके लोगों ने वसीयत की हो तो उनकी तरफ़ से क़ुर्बानी की जाएगी या इस सूरत पर कि ज़िन्दा लोगों की तरफ़ से की जाने वाली क़ुबानी में उनको भी ज़िमनी तौर पर शामिल कर लिया जाए, और यह भी संभव है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अपनी उम्मत की तरफ़ से क़ुर्बानी करना आपकी ख़ुसूसियात में शामिल हो |
नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की तरफ़ से भी क़ुर्बानी करना मसनून नहीं है, क्योंकि न अल्लाह तआला ने अपने बन्दों को इसका हुक्म दिया है और न ख़ुद नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपनी उम्मत को इसकी तालीम दी है |
✍नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की तरफ़ से क़ुर्बानी करने की कोई ज़रूरत भी नहीं है, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम नेकी के मामले बेनियाज़ हैं और किसी उम्मती के ईसाले सवाब के मोहताज नहीं हैं, और वैसे भी एक मुसलमान जो भी नेकी करता है नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को उसका बराबर सवाब मिलता है |
✍एक ही जानवर को क़ुर्बानी और अक़ीक़े की साझा नीयत से ज़बह करना दुरुस्त नहीं है, क्योंकि शरीअत में इसका कोई सुबूत नहीं मिलता, और यूं भी क़ुर्बानी और अक़ीक़ा दोनों अलग और मुस्तक़िल इबादत है, इसलिए एक को दूसरे में दाख़िल करना मुनासिब नहीं है, चुनांचे क़ुर्बानी पूरे परिवार की तरफ़ से होती है जबकि अक़ीक़ा किसी सदस्य की तरफ़ से होता है, क़ुर्बानी हर साल ईद के दिन और तशरीक़ के दिनों में मसनून है जबकि अक़ीक़ा ज़िन्दगी में सिर्फ़ एक बार बच्चे के जन्म के सातवें दिन मसनून है, क़ुर्बानी में बड़ा जानवर भी मसनून है और उसमें साझेदारी भी होती है जबकि अक़ीक़ा में छोटा जानवर मसनून है और उसमें साझेदारी भी नहीं होती है क्योंकि अक़ीक़ा नवजात बच्चे की तरफ़ से फ़िदया होता है इसलिए जिस तरह बच्चा एक सम्पूर्ण जान है उसी तरह उसके फ़िदये (यानी अक़ीक़े) में ज़बह किया जाने वाला जानवर भी मुकम्मल जान होना चाहिए |
............... जारी ...............
आप का भाई:
इफ्तिख़ार आलम मदनी
इस्लामिक गाइडेंस सेंटर
जुबैल सऊदी अरब
+966508750925
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